Tuesday, December 6, 2011

ऐसा क्यों होता है?

जब भी कोई रिश्ता दोस्ती और प्यार के दायरे के बीच आकर खड़ा हो जाता है, तो उसकी किस्मत में टूटना ही लिखा होता है। ऐसा क्यों होता है? सवाल ये भी है कि आखिर कोई रिश्ता दोस्ती और प्यार के बीच में आकर रुक ही क्यों जाता है? दोस्ती तक ही सीमित क्यों नहीं रहता या फिर प्यार में ही तब्दील क्यों नहीं हो जाता?
अक्सर जिंदगी की उबड़-खाबड़ सड़क पर चलते हुए जब मन लहुलुहान हो जाता है, तो उसे सहारे की जरूरत होती है। ऐसे में यदि कोई जाने-अंजाने आगे बढ़कर हाथ थामें या सहारा दे दे, तो उससे दोस्ती होना लाजिमी है। देर सवेर ऐसे ही रिश्ते जब थोड़ा और सहारा एक-दूजे में तलाशने लगते हैं, तो वो रिश्ता दोस्ती की सीमा लांघकर, लगाव के दायरे में पहुंच जाता है। बहुत मुमकिन है कि ऐसे रिश्ते प्यार में तब्दील हो जाएं, लेकिन हर बार ऐसा हो नहीं पाता। क्योंकि ये रिश्ते किसी और रिश्ते में बंधे हुए भी हो सकते हैं। फिर अंजाम क्या होता है?
वही जो फिर बहुत तकलीफ देता है। अलगाव। और शायद यही सही भी है, क्योंकि इन रिश्तों का कोई नाम नहीं होता, कोई पहचान नहीं होती और कोई मुस्तकबिल भी नहीं होता। कई लोग इन्हें दोस्ती का जामा ओढ़ाए सालों निभा लेते हैं, लेकिन ज्यादातर दोनों में से कोई एक, इस रिश्ते को तोड़ देता है। वजह? वजह होता है डर? डर उस रिश्ते के अंजाम का। एक बात तो तय है कि इस रिश्ते के टूटने की एक और वजह ये होती है कि दोनों में से किसी एक को दूसरे से प्यार हो जाता है और फिर बढ़ जाती हैं उम्मीदें। ऐसी उम्मीदें जिनका टूटना निश्चित है। और जब ये उम्मीदें टूटती हैं, तो दिल में किरचों की तरह धंस जाती हैं, जिनसे न खून रिसता है और ना ही जख्म दिखाई देता है। बस कुछ अंदर फंसा रहता है, दुखता हुआ।

ऐसे दुखते किरचों को निकालने के लिए ऐसे रिश्तों का टूट जाना ही बेहतर है शायद। काश, दोस्ती और प्यार के बीच पलने वाले इस रिश्ते का भी कोई नाम, कोई वजूद होता। तब शायद टूटना ही इसकी नियति न होती....

Tuesday, November 22, 2011

अपनी ही तहजीबों से अटा एक शहर

शहर: कानपुर
प्रांत: उत्तरप्रदेश
खासियत: शौकीनों का शहर

कानपुर से यूं तो मेरा वास्ता कई साल पहले से था। मौसा जी के स्थानांतरण के बाद मौसी लोग वहां काफी साल रहे। उनके पास ब्रेक जर्नी के दौरान जाना होता था। फिर एक मौसी की लड़की की शादी भी कानपुर में हुई। उस वक्त भी वहां जाना हुआ। सो कानपुर की जमीं पर कदम तो कई बार पड़े, लेकिन उस शहर को करीब से जानने का मौका एक भी बार नहीं मिल पाया। पर पिछले दिनों दशहरे का दिन कानपुर में बिताने को मिला और मेरी उस शहर से दोस्ती हो गई।
दुर्गा पूजा के लिए लखनऊ तक पहुंची थी। सो रिश्तेदारों से मिलने कानपुर जाना भी तय हुआ। दशहरे वाले दिन अल सुबह मैं और मां निकल पड़े कानपुर के लिए। सुबह की ठंडी हवाएं जैसे हमारे स्वागत को आतुर थीं। वहां जाकर पहली बार पता चला कि कानपुर सिर्फ खाने-पीने के लिए ही नहीं बल्कि और भी कई चीजों के लिए मशहूर है, जिनमें से सबसे खास रही हमारी बिठुर यात्रा।
दोपहर को हम लोग खाना खाने के बाद निकल पड़े कानपुर दर्शन के लिए। कुछ वक्त बाद ऐसा लगा जैसे शहर की भीड़-भाड़ से दूर गांव के शुद्ध वातावरण में कदम रख दिया हो। पता चला बिठुर आ गया है। सबसे पहले उडिय़ा समुदाय द्वारा बनवाया गया श्री जगन्नाथ जी का मंदिर देखा। मंदिर बेहद ही खूबसूरत और पूरी श्रद्धा से बनवाया गया है। तब जाकर महसूस हुआ कि अगर भक्त चाहे तो भगवान को वहीं बुला सकता है, जहां वह खुद है। यहां से आगे बढ़े, तो अगला पड़ाव रहा सुधांशु जी महाराज द्वारा आश्रम जिसे सिद्धधाम आश्रम के नाम से भी जाना जाता है। यहां का माहौल ही कुछ अलग था। इस जगह को दर्शनीय, वंदनीय और रमणीय होने की संज्ञा एक साथ दी जा सकती है। भीतर सबसे पहले दिखा विशाल मंदिर जहां, राधा-कृष्ण को मुख्य स्थान दिया गया है। मंदिर के बाईं ओर एक पहाड़ की आकृति दिखाई दी, जिसपर शिव-पार्वती अपने पुत्र गणेश सहित विराजमान थे। यह दृश्य हिमालय का है। इस पहाड़ के अंदर से भीतर जाने का रास्ता था। जगह-जगह पर स्पेशल लाइट्स और मूर्तियों के जरिए खूबसूरत नजारे बनाए गए हैं। गाय के थन से दूध पीते नन्हे कान्हा, विशाल वृक्ष से लटकता अजगर, अपनी गुहा में बैठा शेर, वनवास के दौरान हनुमान से भेंट करते राम-लक्ष्मण, इन्हीं नजारों में से हैं। मुझे सबसे ज्यादा मोहित किया अर्धनारेश्वर की प्रतिमा ने। स्त्री-पुरुष के यह संगम रोमांचित कर देने वाला था। जितना आगे बढ़ते गए, रास्ता संकरा होता चला गया। एक जगह जब घुटनों के बल आगे बढऩे की नौबत आई, तो अहसास हुआ कि यह रास्ता शायद वैष्णोदेवी की गुफा से प्रेरित होकर बनाया गया है। और हुआ भी वही। थोड़ी सी कठिनाई के बाद जब अंदर पहुंचे तो मां वैष्णोदेवी विराजमान थीं। उनके दर्शन करके हृदय प्रफुल्लित हो गया। वहां से फिर बाहर निकले तो लगा कि सभी देवी-देवताओं का आशिर्वाद लेकर बाहर आए हैं। उसके बाद हमने काफिला आगे बढ़ाया, अगले पड़ाव की ओर।
साईंधाम का नाम सुनकर तो समझ में आ गया था कि हम साईंबाबा के दरबार में पेश होने जा रहे हैं, लेकिन तब तक भी अंदाजा नहीं था कि मुझे केसा अनुभव होने वाला है। जैसे ही साईंधाम में प्रवेश किया, तो सहसा शिर्डी की याद जेहन में ताजा हो गई। हूबहू वैसा ही माहौल। मन सुखद आश्चर्य से भर उठा। काफी वक्त से इच्छा होने के बावजूद शिर्डी नहीं जा पा रही थी। लगा कि शायद बाबा ने मेरी ही परेशानी हल करने के लिए मुझे साईंधाम बुलाया है। अचानक ही अहसास हुआ कि उस दिन गुरुवार था, तिस पर दशहरा। बाबा के दरबार में पेश होने का इससे पावन मौका और कुछ नहीं हो सकता था। मन का विश्वास पक्का हो गया कि जब बाबा को अपने भक्तों से मिलना होता है तो इसकी व्यवस्था वे स्वयं कर देते हैं। उस दिन सुबह तक भी मुझे अहसास नहीं था कि मुझे बाबा के दर्शन इस प्रकार होंगे।
खैर, इस अविस्मरणीय अनुभव के बाद हम वापस घर की ओर लौट चले। रावण दहन का समय नजदीक आ जाने की वजह से भीड़ बढ़ चली थी। इस शहर का यह अनोखा रूप देखकर ही मेरी इससे दोस्ती हो गई। हां, इस दोस्ती का श्रेय, ठग्गु की बदनाम कुल्फी, हनुमान वाले की चाट और वहां की स्पेशल चाय को भी जाता है, जिनका स्वाद अब तलक ताजा है। अपनी दोस्ती गहरी करने के लिए मुझे एक बार फिर इस शहर में जाना होगा। ताकि मैं सीता रसोई, ब्रह्मा की उत्पत्ति का स्थान आदि भी देख सकूं।

Monday, July 18, 2011

आखिर क्या है मेरे शहर की पहचान?

कुछ दिन पहले कुछ ऑफिस के दोस्त साथ बैठे थे। एक ने पूछा 'यार भोपाल में देखने लायक क्या है?' दूसरे ने तपाक से जवाब दिया, 'बड़ा तालाब और वहां बना बोट क्लब, और क्या? इसके अलावा भोपाल में देखने लायक कुछ नहीं है। ' इतना कहते ही सब हंसने लगे। मुझे ना जाने क्यों बहुत बुरा लगा। शायद इसलिए क्योंकि ये मेरा शहर है, मेरा अपना। जैसे किसी 'अपने' के बारे में कोई कुछ बुरा कहे तो बुरा लगता है ना। कुछ वैसा ही महसूस किया मैंने। मन में ख्याल आया, क्या यही मेरे शहर की पहचान है? खैर, उस वक्त तो चुप रह गई, लेकिन बाद में इस बारे में बहुत सोचा। क्या वाकई मेरे शहर में देखने लायक कुछ नहीं है? या फिर लोगों के पास वो नज़र नहीं, जो उन जगहों को पहचान सकें, जो अपने आप में अनूठी हैं। दरअसल, हर शहर में देखने लायक तो बहुत कुछ होता है, लेकिन रहने वालों के लिए यह सब दशर्नीय स्थल घर की मुर्गी दाल बराबर के समान हो जाते हैं। उनकी नजर में वो जगहें, इमारतें सब आम हो जाती हैं, इसलिए शायद यह कह दिया जाता है कि यहां देखने लायक कुछ नहीं है। लेकिन ये भी तो हो सकता है कि पर्यटक के लिए वह जगह, वह इमारत देखना और उसके बारे में जानना यादगार बन जाए?
जब मैंने इस लिहाज़ से सोचा, तो पाया कि भोपाल इतिहास और पुरात्व के लिहाज़ से काफी समृद्ध शहर है। प्राकृतिक समृद्धि भी इसे विरासत में मिली है, जो इस शहर को और भी रमणीय बना देती है। लेकिन इसके अलावा और क्या खास है भोपाल में, जो देखने लायक है? सुल्तानिया इंफेंट्री के पास बना बहुत समय पुराना गुफा मंदिर, जहां हर साल सावन और शिवरात्रि में बहुत बड़ा मेला लगता है या किसी ज़माने में हनुमान टेकरी के नाम से जानी जाने वाली महावीर गिरि जिसे मनुआभान की टेकरी भी कहा जाता है, जो कि जैनियों का तीर्थ स्थल है और जहां रोप वे का आनंद भी लिया जा सकता है। इस पहाड़ी से भोपाल का जो नजारा देखने को मिलता है, उसे सिर्फ आंखों के कैमरे से ही मस्तिष्क के पटल पर उतारा जा सकता है। वहीं से आगे बढ़ें तो एक ज़माने में शहर के बीचों बीच बनी ताज़ुल मसाजिद भी कम दर्शनीय नहीं। आखिर हो भी क्यों ना, आखिर ये मस्जिद एशिया की सबसे बड़ी मस्जिदों में शुमार जो होती है। ऐसा कहा जाता है कि पहले आप भोपाल के किसी भी कोने से इस मस्जिद को देख सकते थे। वक्त का रुख बदला और लंबी इमारतों ने इसे भले ही ढक लिया हो, लेकिन इसकी खूबसूरती को ढकने में नाकामयाब रहे। मैंने थोड़ा और सोचा और पाया कि दुनिया की सबसे छोटी मस्जिद यानी ढाई सीढ़ी की मस्जिद भी यहीं भोपाल में ही मौजूद है। इतनी छोटी मस्जिद भी किसी अजूबे से कम नहीं, लेकिन गांधी मेडिकल कॉलेज के परिसर में होने के कारण शायद पुरात्व विभाग की नज़र अब तक इसपर नहीं पड़ी। 
ऐसी बात नहीं कि मप्र का दिल कहे जाने वाले इस शहर में सिर्फ मस्जिदें ही देखने लायक हैं, यहां पर एक से एक मंदिर भी मौजूद हैं। बिरला मंदिर, कंकाली माता का मंदिर, छोटे तालाब के पास बना काली मंदिर, पीरगेट के पास बना कफ्र्यू वाली माता का मंदिर जिसपर सोने का गुंबद लगा है, आदि आदि। इन सभी की अपनी अलग कहानी है, जिनसे इनके खास होने का पता चलता है। अब बात अगर दूसरे दर्शनीय स्थलों की करें, तो यहां का वन विहार, मानव संग्रहालय, भारत भवन आदि ऐसे भी स्थल हैं, जिनकी न सिर्फ राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर ख्याति है बल्कि जिन्हें अंग्रेजी में प्लेज़र टू वॉच भी कहा जा सकता है।
देखा, बात पर बात निकली तो कितनी जगहें याद आती चली गईं। और अभी तो और भी कई जगहें याद करना बाकी है, भोपाल में भी और आस-पास भी। लेकिन यहां आने वाले लोगों को ही नहीं, शायद इस शहर को कुछ सालों से अपना बसेरा बनाने वालों को भी इनमें से कई जगहों के बारे में या तो नहीं मालूम होगा या वे इनका महत्व नहीं जानते होंगे।
ऐसा सिर्फ मेरे शहर के साथ ही नहीं है, बल्कि हर आम शहर के लिए लोग अक्सर ऐसा ही कहते हैं, लेकिन अगर गौर किया जाए, तो हर शहर के पास अपना एक खज़ाना होता है, जिसे ढूंढ़ पाना किसी पारखी के बस की बात है या फिर उसके, जिसके लिए वो शहर उसका अपना है।